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शेर
यक़ीं मोहकम अमल पैहम मोहब्बत फ़ातेह-ए-आलम
जिहाद-ए-ज़िंदगानी में हैं ये मर्दों की शमशीरें
अल्लामा इक़बाल
शेर
फ़रिश्ते आ कर उन के जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं
वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं
मुनव्वर राना
शेर
झड़ी ऐसी लगा दी है मिरे अश्कों की बारिश ने
दबा रक्खा है भादों को भुला रक्खा है सावन को
साइल देहलवी
शेर
झाड़ कर गर्द-ए-ग़म-ए-हस्ती को उड़ जाऊँगा मैं
बे-ख़बर ऐसी भी इक परवाज़ आती है मुझे
अब्दुल हमीद अदम
शेर
कहते हैं इन शाख़ों पर फल फूल भी आते थे
अब तो पत्ते झड़ते हैं या पत्थर गिरते हैं
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
शेर
उम्मीद की सूखती शाख़ों से सारे पत्ते झड़ जाएँगे
इस ख़ौफ़ से अपनी तस्वीरें हम साल-ब-साल बनाते हैं
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
शेर
हरगिज़ किया न बाद-ए-ख़िज़ाँ का भी इंतिज़ार
वो ताज़ा गुल था मैं कि खिला और झड़ गया