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शेर
दोस्त दो-चार निकलते हैं कहीं लाखों में
जितने होते हैं सिवा उतने ही कम होते हैं
लाला माधव राम जौहर
शेर
ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
हुस्न की सरकार में जितने बढ़े हिन्दू बढ़े
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
गले से लगते ही जितने गिले थे भूल गए
वगर्ना याद थीं हम को शिकायतें क्या क्या
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
शेर
क़दम रक्खा जो राह-ए-इश्क़ में हम ने तो ये देखा
जहाँ में जितने रहज़न हैं इसी मंज़िल में रहते हैं