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शेर
तमीज़-दैर-ओ-का'बा है न फ़िक्र-ए-दीन-दुनिया है
ये रिंद-ए-पाक-तीनत भी तिरे अल्लाह वाले हैं
जलील मानिकपूरी
शेर
दैर ओ काबा में भटकते फिर रहे हैं रात दिन
ढूँढने से भी तो बंदों को ख़ुदा मिलता नहीं
दत्तात्रिया कैफ़ी
शेर
पड़ा है दैर-ओ-काबा में ये कैसा ग़ुल ख़ुदा जाने
कि वो पर्दा-नशीं बाहर न आ जाने न जा जाने
क़लक़ मेरठी
शेर
निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न बुत-ख़ाना
तो ठुकराए हुए इंसाँ ख़ुदा जाने कहाँ जाते
क़तील शिफ़ाई
शेर
मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
बिछाएँगे मुसल्ला चल के हम मेहराब-ए-अबरू में
असद अली ख़ान क़लक़
शेर
क्यों हैं तूफ़ान की ज़द में हरम-ओ-दैर-ओ-कुनिश्त
इन मज़ारों पे तो मुद्दत से चराग़ाँ भी नहीं