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शेर
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
आज उन्हें देखिए क्या हो गए क्या से बढ़ कर
शरफ़ मुजद्दिदी
शेर
अभी कम-सिन हो रहने दो कहीं खो दोगे दिल मेरा
तुम्हारे ही लिए रक्खा है ले लेना जवाँ हो कर
दाग़ देहलवी
शेर
जान जानी है मिरी ऐ बुत-ए-कम-सिन तुझ पर
मर ही जाऊँगा गला काट के इक दिन तुझ पर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
दुख़्तर-ए-रज़ की हूँ सोहबत का मुबाशिर क्यूँ-कर
अभी कम-सिन है बहुत मर्द से शरमाती है