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शेर
बहुत हैं सज्दा-गाहें पर दर-ए-जानाँ नहीं मिलता
हज़ारों देवता हैं हर तरफ़ इंसाँ नहीं मिलता
ख़ालिद हसन क़ादिरी
शेर
आख़िर गिल अपनी सर्फ़-ए-दर-ए-मय-कदा हुई
पहुँचे वहाँ ही ख़ाक जहाँ का ख़मीर हो
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
शेर
बाज़ीगाह-ए-दार-ओ-रसन में मय-कदा-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न में
हम रिंदों से रौनक़ है हम दरवेशों से मेले हैं
अफ़ज़ल परवेज़
शेर
फ़क़त माल-ओ-ज़र-ए-दीवार-ओ-दर अच्छा नहीं लगता
जहाँ बच्चे नहीं होते वो घर अच्छा नहीं लगता
अब्बास ताबिश
शेर
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
शेर
दर-ओ-दीवार-ए-चमन आज हैं ख़ूँ से लबरेज़
दस्त-ए-गुल-चीं से मबादा कोई दिल टूटा है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
खुला ये दिल पे कि तामीर-ए-बाम-ओ-दर है फ़रेब
बगूले क़ालिब-ए-दीवार-ओ-दर में होते हैं
अज़ीज़ हामिद मदनी
शेर
किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा
मोहब्बत में अदा की हैं नमाज़ें बे-वुज़ू बरसों