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शेर
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
शेर
किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
इस वाक़िआ' की ख़ाक है पत्थर को इत्तिलाअ'
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
उड़ाओ ख़ाक सरसर बन के या बाद-ए-सबा बन कर
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
ख़ाक आब-ए-गिर्या से आतिश बुझे नाचार हम
जानिब-ए-कू-ए-बुताँ जूँ बाद-ए-सरसर जाएँगे
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
शेर
ख़ाक-ए-आग़श्ता-ब-ख़ूँ को मिरी बे-क़द्र न जान
गुल-बदन सारे इसे करते हैं उबटन अपना