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शेर
मुझे अपने रूप की धूप दो कि चमक सकें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द
मुझे अपने रंग में रंग दो मिरे सारे रंग उतार दो
ऐतबार साजिद
शेर
मिरी रौशनी तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर
तू क़रीब आ तुझे देख लूँ तू वही है या कोई और है
सलीम कौसर
शेर
है ख़ाल यूँ तुम्हारे चाह-ए-ज़क़न के अंदर
जिस रूप हो कनहय्या आब-ए-जमन के अंदर
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
शेर
ख़ाल-ओ-आरिज़ का तसव्वुर है हमारे दिल में
एक हिन्दू भी है काबे में मुसलमान के साथ
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
बे-चेहरगी की भीड़ में गुम है मिरा वजूद
मैं ख़ुद को ढूँढता हूँ मुझे ख़द-ओ-ख़ाल दे