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शेर
अरे ओ ख़ाना-आबाद इतनी ख़ूँ-रेज़ी ये क़त्ताली
कि इक आशिक़ नहीं कूचा तिरा वीरान सूना है
वलीउल्लाह मुहिब
शेर
क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को
मस्जिदें काफ़ी न होतीं क्या ख़ुदा की याद को
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
तू ने ग़ारत किया घर बैठे घर इक आलम का
ख़ाना आबाद हो तेरा ऐ मिरे ख़ाना-ख़राब
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
ख़िरद को ख़ाना-ए-दिल का निगह-बाँ कर दिया हम ने
ये घर आबाद होता इस को वीराँ कर दिया हम ने
इज्तिबा रिज़वी
शेर
मआज़-अल्लाह मय-ख़ाने के औराद-ए-सहर-गाही
अज़ाँ में कह गया मैं एक दिन या पीर-ए-मय-ख़ाना
नुशूर वाहिदी
शेर
लूटा जो उस ने मुझ को तो आबाद भी किया
इक शख़्स रहज़नी में भी रहबर लगा मुझे
अकबर अली खान अर्शी जादह
शेर
कुफ़्र-ओ-ईमाँ से है क्या बहस इक तमन्ना चाहिए
हाथ में तस्बीह हो या दोश पर ज़ुन्नार हो