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शेर
पत्तों को छोड़ देता है अक्सर ख़िज़ाँ के वक़्त
ख़ुद-ग़र्ज़ी ही कुछ ऐसी यहाँ हर शजर में है
अतुल अजनबी
शेर
ख़ुद-रफ़्तगी है चश्म-ए-हक़ीक़त जो वा हुई
दरवाज़ा खुल गया तो मैं घर से निकल गया
वज़ीर अली सबा लखनवी
शेर
तख़्लीक़ ख़ुद किया था कल अपने में एक घर
अब घर से ख़ल्क़ चंद मकीं कर रहे हैं हम