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शेर
क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को
मस्जिदें काफ़ी न होतीं क्या ख़ुदा की याद को
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी
ख़ुदा जाने तुम्हारा परतव-ए-रुख़्सार था क्या था
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
उन्हें फ़र्ज़ हो गया है गिला-ए-हयात करना
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
ख़ुदा ऐ काश 'नाज़िश' जीते-जी वो वक़्त भी लाए
कि जब हिन्दोस्तान कहलाएगा हिन्दोस्तान-ए-आज़ादी
नाज़िश प्रतापगढ़ी
शेर
जम्अ हैं सारे मुसाफ़िर ना-ख़ुदा-ए-दिल के पास
कश्ती-ए-हस्ती नज़र आती है अब साहिल के पास
हरी चंद अख़्तर
शेर
दयार-ए-इश्क़ आया कुफ़्र-ओ-ईमाँ की हदें छूटीं
यहीं से और पैदा कर ख़ुदा ओ अहरमन कोई
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
ख़ुदा हम तो शब-ए-फ़िराक़ से मजबूर हो गए
इस शब को तू ही सुब्ह कर अब ऐ ख़दा-ए-सुब्ह