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शेर
किब्र भी है शिर्क ऐ ज़ाहिद मुवह्हिद के हुज़ूर
ले के तेशा ख़ाकसारी का बुत-ए-पिंदार तोड़
मुनीर शिकोहाबादी
शेर
ये किब्र-ओ-नाज़ अब क्या जब सर-ए-बाज़ार तुम निकले
मगर हाँ ये कहो बहुतों ने देखा कम ने पहचाना
इज्तिबा रिज़वी
शेर
सब ने माना मरने वाला दहशत-गर्द और क़ातिल था
माँ ने फिर भी क़ब्र पे उस की राज-दुलारा लिक्खा था
अहमद सलमान
शेर
मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं
मैं अपने घर में हूँ या मैं किसी मज़ार में हूँ
मुनीर नियाज़ी
शेर
चराग़ उस ने बुझा भी दिया जला भी दिया
ये मेरी क़ब्र पे मंज़र नया दिखा भी दिया