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शेर
या गुफ़्तुगू हो उन लब-ओ-रुख़्सार-ओ-ज़ुल्फ़ की
या उन ख़मोश नज़रों के लुत्फ़-ए-सुख़न की बात
जयकृष्ण चौधरी हबीब
शेर
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
जिसे तुम ने किया ख़ामोश उस से क्या सदा निकले
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
शेर
सो यूँ हुआ कि लगा क़ुफ़्ल नुत्क़-ओ-लब पे मिरे
मैं तुम से मिल के बहुत देर तक रहा ख़ामोश
अब्दुर्राहमान वासिफ़
शेर
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
शेर
जन्नत-ए-सूफ़िया निसार दहर की मुश्त-ए-ख़ाक पर
आशिक़-ए-अर्ज़-ए-पाक को दावत-ए-ला-मकाँ न दे
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
मिरे दिल से कभी ग़ाफ़िल न हों ख़ुद्दाम-ए-मय-ख़ाना
ये रिंद-ए-ला-उबाली बे-पिए भी तो बहकता है
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
बाँग-ए-तकबीर तो ऐसी है 'बक़ा' सीना-ख़राश
उँगलियाँ आप मोअज़्ज़िन ने धरीं कान के बीच