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शेर
हम गिरफ़्तारों को अब क्या काम है गुलशन से लेक
जी निकल जाता है जब सुनते हैं आती है बहार
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
शेर
न लेट इस तरह मुँह पर ज़ुल्फ़ को बिखरा के ऐ ज़ालिम
ज़रा उठ बैठ तू इस दम कि दोनों वक़्त मिलते हैं
मीर हसन
शेर
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
बद-ज़ात माँदगी के बहाने से रह गया
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
व-लेक ये नहीं मालूम हम किधर को चले