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शेर
जिस नूर के बक्के को मह-ओ-ख़ुर ने न देखा
कम-बख़्त ये दिल लोटे है उस पर्दा-नशीं पर
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
मोहतसिब भी पी के मय लोटे है मयख़ाने में आज
हाथ ला पीर-ए-मुग़ाँ ये लौटने की जाए है
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
शेर
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
तू इधर उधर की न बात कर ये बता कि क़ाफ़िले क्यूँ लुटे
तिरी रहबरी का सवाल है हमें राहज़न से ग़रज़ नहीं
शहाब जाफ़री
शेर
तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं