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शेर
उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था
मुकम्मल हो चुके थे जिस घड़ी अर्ज़-ओ-समा बन कर
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
इक हुस्न-ए-मुकम्मल है तो इक इश्क़-सरापा
होश्यार सा इक शख़्स है दीवाना सा इक शख़्स
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
शेर
फ़रेब-ए-माह-ओ-अंजुम से निकल जाएँ तो अच्छा है
ज़रा सूरज ने करवट ली ये तारे डूब जाएँगे
अली अकबर अब्बास
शेर
फ़र्क़ इतना है कि तू पर्दे में और मैं बे-हिजाब
वर्ना मैं अक्स-ए-मुकम्मल हूँ तिरी तस्वीर का
असद भोपाली
शेर
कौन है जो इतने सन्नाटे में है महव-ए-सफ़र
दश्त-ए-शब में ये ग़ुबार-ए-माह-ओ-अंजुम किस लिए