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शेर
ऐ 'फ़ज़ा' इतनी कुशादा कब थी मअ'नी की जिहत
मेरे लफ़्ज़ों से उफ़ुक़ इक दूसरा रौशन हुआ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
शेर
बना कर तिल रुख़-ए-रौशन पर दो शोख़ी से से कहते हैं
ये काजल हम ने यारा है चराग़-ए-माह-ए-ताबाँ पर
असद अली ख़ान क़लक़
शेर
फ़रेब-ए-माह-ओ-अंजुम से निकल जाएँ तो अच्छा है
ज़रा सूरज ने करवट ली ये तारे डूब जाएँगे