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शेर
पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
और वो फिर उस पे रखते हैं गुमान-ए-रेख़्ता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
वो सुन रहा है मिरी बे-ज़बानियों की ज़बाँ
जो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा-ओ-ज़बाँ से पहले था
अकबर अली खान अर्शी जादह
शेर
मअ'नी-ए-रौशन जो हों तो सौ से बेहतर एक शेर
मतला-ए-ख़ुर्शीद काफ़ी है पए-दीवान-ए-सुब्ह
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
शेर
मेरी अर्ज़-ए-शौक़ बे-मअ'नी है उन के वास्ते
उन की ख़ामोशी भी इक पैग़ाम है मेरे लिए