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शेर
तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ
ऐसे पस-मंज़र में क्या रहना सर-ए-मंज़र तो आ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
शेर
ऐ 'फ़ज़ा' इतनी कुशादा कब थी मअ'नी की जिहत
मेरे लफ़्ज़ों से उफ़ुक़ इक दूसरा रौशन हुआ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
शेर
सलीम अहमद
शेर
अश्क-ए-ग़म उक़्दा-कुशा-ए-ख़लिश-ए-जाँ निकला
जिस को दुश्वार मैं समझा था वो आसाँ निकला
हादी मछलीशहरी
शेर
मोहब्बत मअ'नी ओ अल्फ़ाज़ में लाई नहीं जाती
ये वो नाज़ुक हक़ीक़त है जो समझाई नहीं जाती
शेरी भोपाली
शेर
दर-हक़ीक़त इत्तिसाल-ए-जिस्म-ओ-जाँ है ज़िंदगी
ये हक़ीक़त है कि अर्बाब-ए-हिमम के वास्ते
आतिश बहावलपुरी
शेर
हज़ारों बार सींचा है इसे ख़ून-ए-रग-ए-जाँ से
तअ'ज्जुब है मिरे गुलशन की वीरानी नहीं जाती