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शेर
वतन की ख़ाक से मर कर भी हम को उन्स बाक़ी है
मज़ा दामान-ए-मादर का है इस मिट्टी के दामन में
चकबस्त बृज नारायण
शेर
ऐ मुक़ल्लिद बुल-हवस हम से न कर दावा-ए-इश्क़
दाग़ लाला की तरह रखते हैं मादर-ज़ाद हम
इश्क़ औरंगाबादी
शेर
मदार-ए-ज़िंदगी ठहरा नफ़स की आमद-ओ-शुद पर
हवा के ज़ोर से रौशन चराग़-ए-बज़्म-ए-हस्ती है
जलील मानिकपूरी
शेर
हमारी देखियो ग़फ़लत न समझे वाए नादानी
हमें दो दिन के बहलाने को उम्र-ए-बे-मदार आई
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
शेर
मादर-ए-दहर उठाती है जो हर दम मिरे नाज़
उस के दामन पे मैं तिफ़लाना मचल जाता हूँ