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शेर
मज़ा बरसात का चाहो तो इन आँखों में आ बैठो
स्याही है सफ़ेदी है शफ़क़ है अब्र-ए-बाराँ है
आरज़ू लखनवी
शेर
उम्मीदों से पर्दा रक्खा ख़ुशियों से महरूम रहीं
ख़्वाब मरा तो चालिस दिन तक सोग मनाया आँखों ने
भारत भूषण पन्त
शेर
मैं ने माना एक गुहर हूँ फिर भी सदफ़ में हूँ
मुझ को आख़िर यूँ ही घुट कर कब तक रहना है
भारत भूषण पन्त
शेर
जो कह रहे थे ख़ून से सींचेंगे गुल्सिताँ
वो हामियान-ए-फ़स्ल-ए-बहाराँ किधर गए