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शेर
बने हैं जब से वो लैला नई महमिल में रहते हैं
जिसे दीवाना करते हैं उसी के दिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
शेर
तुम्हारी तेग़ से आँखें लगी हैं मरने वालों की
ये लैला कब मिरी जाँ पर्दा-ए-महमिल से निकलेगी
नसीम भरतपूरी
शेर
अगर उर्यानी-ए-मजनूँ पे आता रहम लैला को
बना देती क़बा वो चाक कर के पर्दा महमिल का
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
शेर
गुबार-ए-ज़िंदगी में लैला-ए-मक़्सूद क्या मअ'नी
वो दीवाने हैं जो इस गर्द को महमिल समझते हैं
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
शेर
फ़रियाद को मजनूँ की सुने कौन जहाँ हों
लिक्खूँ दिल-ए-नालाँ जरस-ए-महमिल-ए-लैला