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शेर
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
तू अपने पाँव की मेहंदी छुड़ा के दे ऐ महर
फ़लक को चाहिए ग़ाज़ा रुख़-ए-क़मर के लिए
वज़ीर अली सबा लखनवी
शेर
हनीफ़ अख़गर
शेर
यही महर ओ माह ओ अंजुम को गिला है मुझ से या-रब
कि उन्हें भी चैन मिलता जो मुझे क़रार होता
अदीब सहारनपुरी
शेर
सुलग रहा है उफ़ुक़ बुझ रही है आतिश-ए-महर
रुमूज़-ए-रब्त-ए-गुरेज़ाँ खुले तो बात चले
अज़ीज़ हामिद मदनी
शेर
शाम भी है सुब्ह भी है और दिन भी रात भी
माह-ए-ताबाँ अब भी है महर-ए-दरख़्शाँ अब भी है
बशीरुद्दीन अहमद देहलवी
शेर
पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया
ग़िल्मान-ए-महर साथ लिए आई हूर-ए-सुब्ह
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
तड़ावे के लिए है ख़्वान पोश महर-ओ-मह नादाँ
फ़रेब-ए-चर्ख़ मत खाना कहीं, ये ख़्वान ख़ाली है