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शेर
या हुस्न हुआ मजबूर-ए-करम या इश्क़ ने मंज़िल पाली है
वो ज़ुल्फ़ बिखेरे आए हैं इक वहशी के समझाने को
शौकत रिज़वी
शेर
वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की
आलम-ए-इम्काँ से भी बाहर मिरा वीराना है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
किसी महबूब-ए-गंदुम-गूँ की उल्फ़त में गुज़रते हैं
दम अपना जिस्म से या ख़ुल्द से आदम निकलता है
ज़ेबा
शेर
गर हो शराब ओ ख़ल्वत ओ महबूब-ए-ख़ूब-रू
ज़ाहिद क़सम है तुझ को जो तू हो तो क्या करे
मोहम्मद रफ़ी सौदा
शेर
मसरूर-ओ-मुतमइन हैं बहुत ताजिरान-ए-वक़्त
क्या ज़िंदगी के ख़्वाब भी नीलाम हो गए
अज़मत अब्दुल क़य्यूम ख़ाँ
शेर
क़िस्सा-ए-मजनूँ-ओ-फ़र्हाद भी इक पर्दा है
जो फ़साना है यहाँ शरह-ओ-बयाँ है अपना