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शेर
सर-ए-बज़्म मुझ को उठा दिया मुझे मार मार लिटा दिया
मुझे मारता कोई और है वले हाँफ्ता कोई और है
ज़ियाउल हक़ क़ासमी
शेर
मैं किस क़तार में हूँ जहाँ मुझ से सैकड़ों
मर मर गए अज़िय्यत-ए-ज़ंजीर खींच कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
तू मिरे ग़म में न हँसती हुई आँखों को रुला
मैं तो मर मर के भी जी सकता हूँ मेरा क्या है
नरेश कुमार शाद
शेर
हमारा कोह-ए-ग़म क्या संग-ए-ख़ारा है जो कट जाता
अगर मर मर के ज़िंदा कोहकन होता तो क्या होता
अफ़सर इलाहाबादी
शेर
बुरा मत मान इतना हौसला अच्छा नहीं लगता
ये उठते बैठते ज़िक्र-ए-वफ़ा अच्छा नहीं लगता
आशुफ़्ता चंगेज़ी
शेर
राह-ए-वफ़ा में जी के मरे मर के भी जिए
खेला उसी तरह से किए ज़िंदगी से हम