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शेर
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग
जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग
जावेद अख़्तर
शेर
इसी उम्मीद पर तो जी रहे हैं हिज्र के मारे
कभी तो रुख़ से उट्ठेगी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
हाशिम अली ख़ाँ दिलाज़ाक
शेर
वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है
मरे बुत-ख़ाने में तो काबे में गाड़ो बिरहमन को