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शेर
ख़ाक-ए-आशिक़ से जो उगता है मुग़ीलाँ का दरख़्त
उस की मिज़्गाँ का है मरक़द में भी खटका बाक़ी
आशिक़ अकबराबादी
शेर
'क़ाएम' हयात-ओ-मर्ग-ए-बुज़-ओ-गाव में हैं नफ़अ
इस मर्दुमी के शोर पे किस काम का हूँ मैं
क़ाएम चाँदपुरी
शेर
तुम आओ मर्ग-ए-शादी है न आओ मर्ग-ए-नाकामी
नज़र में अब रह-ए-मुल्क-ए-अदम यूँ भी है और यूँ भी
साइल देहलवी
शेर
क़त्ल-ए-हुसैन अस्ल में मर्ग-ए-यज़ीद है
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद