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शेर
अगर मज़हब ख़लल-अंदाज़ है मुल्की मक़ासिद में
तो शैख़ ओ बरहमन पिन्हाँ रहें दैर ओ मसाजिद में
अकबर इलाहाबादी
शेर
मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमाँ की हरारत वालों ने
मन अपना पुराना पापी है बरसों में नमाज़ी बन न सका
अल्लामा इक़बाल
शेर
मस्जिद में उस ने हम को आँखें दिखा के मारा
काफ़िर की शोख़ी देखो घर में ख़ुदा के मारा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
तुझे कुछ इश्क़ ओ उल्फ़त के सिवा भी याद है ऐ दिल
सुनाए जा रहा है एक ही अफ़्साना बरसों से