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शेर
हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी
ख़ुदा जाने तुम्हारा परतव-ए-रुख़्सार था क्या था
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
हो कोई मौज-ए-तूफ़ाँ या हवा-ए-तुंद का झोंका
जो पहुँचा दे लब-ए-साहिल उसी को नाख़ुदा समझो
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
शेर
बना लेता है मौज-ए-ख़ून-ए-दिल से इक चमन अपना
वो पाबंद-ए-क़फ़स जो फ़ितरतन आज़ाद होता है
असग़र गोंडवी
शेर
मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है
कि मौज-ए-बू-ए-गुल से नाक में आता है दम मेरा
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
आजिज़ मातवी
शेर
वो शय कहाँ है पिन्हाँ ऐ मौज-ए-आब-ए-हैवाँ
जो वज्ह-ए-सर-ख़ुशी थी बरसों की तिश्नगी में