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शेर
अगर मौजें डुबो देतीं तो कुछ तस्कीन हो जाती
किनारों ने डुबोया है मुझे इस बात का ग़म है
दिवाकर राही
शेर
मुसाफ़िर अपनी मंज़िल पर पहुँच कर चैन पाते हैं
वो मौजें सर पटकती हैं जिन्हें साहिल नहीं मिलता
मख़मूर देहलवी
शेर
नाख़ुदा मौजों की इस नर्म-ख़िरामी पे न जा
यही मौजें तो बदल जाती हैं तूफ़ानों में
सय्यद नवाब अफ़सर लखनवी
शेर
मुज़्तरिब हैं मौजें क्यूँ उठ रहे हैं तूफ़ाँ क्यूँ
क्या किसी सफ़ीने को आरज़ू-ए-साहिल है
अमीर क़ज़लबाश
शेर
हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेर-ए-दरिया तैरने वाले
तमांचे मौज के खाते थे जो बन कर गुहर निकले