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शेर
सालिक है गरचे सैर-ए-मक़ामात-ए-दिल-फ़रेब
जो रुक गए यहाँ वो मक़ाम-ए-ख़तर में हैं
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
शेर
न जाने कल हों कहाँ साथ अब हवा के हैं
कि हम परिंदे मक़ामात-ए-गुम-शुदा के हैं
राजेन्द्र मनचंदा बानी
शेर
फ़िलफ़िल-ए-ख़ाल-ए-मलाहत के तसव्वुर में तिरे
चरचराहट है कबाब-ए-दिल-ए-बिरयान में क्या