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शेर
हादसात-ए-दहर में वाबस्ता-ए-अर्बाब-ए-दर्द
ली जहाँ करवट किसी ने इंक़लाब आ ही गया
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
इस आलम-ए-वीराँ में क्या अंजुमन-आराई
दो रोज़ की महफ़िल है इक उम्र की तन्हाई
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
शेर
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
ये जो कुछ पानी से बाहर है ज़मीं थोड़ी सी
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
अब आया ध्यान ऐ आराम-ए-जाँ इस ना-मुरादी में
कफ़न देना तुम्हें भूले थे हम अस्बाब-ए-शादी में
मीर तक़ी मीर
शेर
ख़ुशी मेरी गवारा थी न क़िस्मत को न दुनिया को
सो मैं कुछ ग़म बरा-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब उठा लाई
हुमैरा राहत
शेर
शहर में मुझ से भड़कता था तसव्वुर तेरा
उस की तस्ख़ीर को मैं साकिन-ए-वीराना हुआ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
शग़्ल-ए-उल्फ़त को जो अहबाब बुरा कहते हैं
कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या कहते हैं
मीर मेहदी मजरूह
शेर
जो जान छिड़कते थे वही कहते हैं मुझ से
तू हल्क़ा-ए-अहबाब में शामिल ही कहाँ था