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शेर
यूँ अगर झगड़ा मोहब्बत का चुके तो ख़ूब है
हम ज़ियादा चाहें वो ऐ 'मेहर' कम चाहा करें
हातिम अली मेहर
शेर
पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया
ग़िल्मान-ए-महर साथ लिए आई हूर-ए-सुब्ह