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शेर
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
शेर
इक मंज़र में इक धुँदले से अक्स में छुप के रो लें
हम किस ख़्वाब में आँखें मूँदें किस में आँखें खोलें
अम्बरीन सलाहुद्दीन
शेर
मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
आँख भी मूँद के गुज़रूँ तो गुज़र जाता हूँ
अहमद कमाल परवाज़ी
शेर
दिए मुंडेर प रख आते हैं हम हर शाम न जाने क्यूँ
शायद उस के लौट आने का कुछ इम्कान अभी बाक़ी है
ऐतबार साजिद
शेर
ये दिल अब मुझ से थोड़ी देर सुस्ताने को कहता है
और आँखें मूँद कर हर बात दोहराने को कहता है
मनमोहन तल्ख़
शेर
अकबर लाहौरी
शेर
पर्दा-ए-गोश-ए-असीराँ न हुई इक शब-ए-गर्म
पाँव किस मुर्दे का या-रब मिरी ज़ंजीर में था