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शेर
वक़्त बे-मेहर है इस फ़ुर्सत-ए-कमयाब में तुम
मेरी आँखों में रहो ख़्वाब-ए-मुजस्सम की तरह
ज़िया जालंधरी
शेर
क्या है वो जान-ए-मुजस्सम जिस के शौक़-ए-दीद में
जामा-ए-तन फेंक कर रूहें भी उर्यां हो गईं
इस्माइल मेरठी
शेर
तिश्नगी मेरी मुसल्लम है मगर जाने क्यूँ
लोग दे देते हैं टूटे हुए प्याले मुझ को
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
शेर
लफ़्ज़ की हुरमत मुक़द्दम है दिल-ओ-जाँ से मुझे
सच तआ'रुफ़ है मिरे हर शे'र हर तहरीर का
अंबरीन हसीब अंबर
शेर
था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
या सनम कह कर पढ़ा मकतब में बिस्मिल्लाह को