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शेर
पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू
मैं सुर्ख़ हूँ तुम सुर्ख़ ज़मीं सुर्ख़ ज़माँ सुर्ख़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
रश्क से देखे है बुलबुल दहन-ए-सुर्ख़ तिरा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
हर शाख़ ज़र्द ओ सुर्ख़ ओ सियह हिज्र-ए-यार में
डसते हैं दिल को आन के जूँ नाग ऐ बसंत
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
शेर
जब कि ले ज़ुल्फ़ तिरी मुसहफ़-ए-रुख़ का बोसा
फिर यहाँ फ़र्क़ हो हिन्दू ओ मुसलमान में क्या
शाह नसीर
शेर
'अख़्तर'-ए-ज़ार भी हो मुसहफ़-ए-रुख़ पर शैदा
फ़ाल ये नेक है क़ुरआन से हम देखते हैं
वाजिद अली शाह अख़्तर
शेर
किताब-ए-दर्स-ए-मजनूँ मुसहफ़-रुख़्सार-ए-लैला है
हरीफ़-ए-नुक्ता-दान-ए-इश्क़ को मकतब से क्या मतलब
साहिर देहल्वी
शेर
मस्जिद वहशत में पढ़ता है तरावीह-ए-जुनूँ
मुसहफ़ हुस्न-ए-परी-रुख़्सार जिस कूँ याद है
सिराज औरंगाबादी
शेर
पीरी में 'रियाज़' अब भी जवानी के मज़े हैं
ये रीश-ए-सफ़ेद और मय-ए-होश-रुबा सुर्ख़