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शेर
वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ ओ लब की बख़िया-गरी
फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
नदीम गुल्लानी
शेर
हुई सुब्ह जाम खनक उठे हुई शाम नग़्मे बिखर गए
वो हसीन दिन भी थे किस क़दर जो तुम्हारे साथ गुज़र गए
सलाम संदेलवी
शेर
क्या ख़बर थी इस क़दर पुर-कैफ़ नग़्मे हैं निहाँ
ज़िंदगी को एक साज़-ए-बे-सदा समझा था मैं
मुसतफ़ा राही
शेर
मोहब्बत के लिए कुछ ख़ास दिल मख़्सूस होते हैं
ये वो नग़्मा है जो हर साज़ पर गाया नहीं जाता