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शेर
तिरे सुख़न में ऐ नासेह नहीं है कैफ़िय्यत
ज़बान-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना सीं सुन कलाम-ए-शराब
सिराज औरंगाबादी
शेर
मोहब्बत को समझना है तो नासेह ख़ुद मोहब्बत कर
किनारे से कभी अंदाज़ा-ए-तूफ़ाँ नहीं होता
ख़ुमार बाराबंकवी
शेर
जुनूँ के कैफ़-ओ-कम से आगही तुझ को नहीं नासेह
गुज़रती है जो दीवानों पे दीवाने समझते हैं
ज़की काकोरवी
शेर
नहीं वो हम कि कहने से तिरे हर बुत के बंदे हों
करे पैदा भी गर नासेह तू उस ग़ारत-गर-ए-दीं सा
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
शेर
वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की
आलम-ए-इम्काँ से भी बाहर मिरा वीराना है