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शेर
कुछ ऐसा है फ़रेब-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना बरसों से
कि सब भूले हुए हैं काबा ओ बुत-ख़ाना बरसों से
इक़बाल सुहैल
शेर
आँखें मिरी फूटें तिरी आँखों के बग़ैर आह
गर मैं ने कभी नर्गिस-ए-बीमार को देखा
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
शेर
हम अपने घर में भी अब बे-सर-ओ-सामाँ से रहते हैं
हमारे सिलसिले ख़ाना-ख़राबों से निकल आए
ख़ुशबीर सिंह शाद
शेर
सिवा तेरे हर इक शय को हटा देना है मंज़र से
और इस के ब'अद ख़ुद को बे-सर-ओ-सामान करना है
हसन अब्बास रज़ा
शेर
वुसअ'त-ए-मशरब-ए-रिंदाँ का नहीं है महरम
ज़ाहिद-ए-सादा हमें बे-सर-ओ-सामाँ समझा