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शेर
ज़ुल्फ़-ए-कलमूँही को प्यारे इतना भी सर मत चढ़ा
बे-महाबा मुँह पे तेरे पाँव करती है दराज़
हसरत अज़ीमाबादी
शेर
न मिज़ाज-ए-नाज़-ए-जल्वा कभी पा सकीं निगाहें
कि उलझ के रह गई हैं तिरी ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म में