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शेर
बद-क़िस्मतों को गर हो मयस्सर शब-ए-विसाल
सूरज ग़ुरूब होते ही ज़ाहिर हो नूर-ए-सुब्ह
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में
तू सरापा हुस्न का नक़्शा है मैं तस्वीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
हुस्न काफ़िर था अदा क़ातिल थी बातें सेहर थीं
और तो सब कुछ था लेकिन रस्म-ए-दिलदारी न थी
आल-ए-अहमद सुरूर
शेर
बुतों में नूर-ए-ज़ात-ए-किब्रिया मालूम होता है
मुझे कुछ दिन से हर पत्थर ख़ुदा मालूम होता है
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
कहिए क्यूँकर न उसे बादशह-ए-किश्वर-ए-हुस्न
कि जहाँ जा के वो बैठा वहीं दरबार लगा
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
ख़रीदारी-ए-जिंस-ए-हुस्न पर रग़बत दिलाता है
बना है शौक़-ए-दिल दल्लाल बाज़ार-ए-मोहब्बत का
असद अली ख़ान क़लक़
शेर
साहिर लुधियानवी
शेर
नहीं तिल धरने की जागह जो ब-अफ़्ज़ूनी-ए-हुस्न
देखा शब उस को तो इक ख़ाल ब-रुख़्सार न था