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शेर
इक आग ग़म-ए-तन्हाई की जो सारे बदन में फैल गई
जब जिस्म ही सारा जलता हो फिर दामन-ए-दिल को बचाएँ क्या
अतहर नफ़ीस
शेर
होंटों से उस दर्द की ख़ुशबू आ कर जिस्म में फैल गई
कितना दर्द इकट्ठा था उस ठंडी सी पेशानी में