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शेर
हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिन को पढ़ के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं
अकबर इलाहाबादी
शेर
और भी तो हैं ज़माने में तुम्हारे आशिक़
एक मैं ही तुम्हें क्या क़ाबिल-ए-इल्ज़ाम मिला
कैफ़ी हैदराबादी
शेर
वाइ'ज़ो हम रिंद क्यूँ-कर काबिल-ए-जन्नत नहीं
क्या गुनहगारों को मीरास-ए-पिदर मिलती नहीं
इमदाद अली बहर
शेर
तब्अ कह और ग़ज़ल, है ये 'नज़ीरी' का जवाब
रेख़्ता ये जो पढ़ा क़ाबिल-ए-इज़हार न था
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
एक पत्थर पूजने को शैख़ जी काबे गए
'ज़ौक़' हर बुत क़ाबिल-ए-बोसा है इस बुत-ख़ाने में