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शेर
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
सिर्फ़ ज़बाँ की नक़्क़ाली से बात न बन पाएगी 'हफ़ीज़'
दिल पर कारी चोट लगे तो 'मीर' का लहजा आए है
हफ़ीज़ मेरठी
शेर
गुज़रते वक़्त ने क्या क्या न चारा-साज़ी की
वगरना ज़ख़्म जो उस ने दिया था कारी था
अख़्तर होशियारपुरी
शेर
कहाँ बच कर चली ऐ फ़स्ल-ए-गुल मुझ आबला-पा से
मिरे क़दमों की गुल-कारी बयाबाँ से चमन तक है
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
जिस्म उस की गोद में हो रूह तेरे रू-ब-रू
फ़ाहिशा के गर्म बिस्तर पर रिया-कारी करूँ
मिद्हत-उल-अख़्तर
शेर
मेरे तीखे शेर की क़ीमत दुखती रग पर कारी चोट
चिकनी चुपड़ी ग़ज़लें बे-शक आप ख़रीदें सोने से
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
शेर
रिया-कारी के सज्दे शैख़ ले बैठेंगे मस्जिद को
किसी दिन देखना हो कर रहेगी सर-निगूँ वो भी