aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "qal.ii"
का मूजिब सितम-ओ-जौर का उस्ताद जफ़ा-कारी में माहिर जो सितम-केश-ओ-सितमगर जो सितम-पेशा हैदिलबर जिसे आती नहीं उल्फ़त जो समझता नहीं चाहत जो तसल्ली को न समझे जो तशफ़्फ़ी को न
किसी कली किसी गुल में किसी चमन में नहींवो रंग है ही नहीं जो तिरे बदन में नहीं
गुल के होने की तवक़्क़ो पे जिए बैठी हैहर कली जान को मुट्ठी में लिए बैठी है
होने दो चराग़ाँ महलों में क्या हम को अगर दीवाली हैमज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम मज़दूर की दुनिया काली है
कहा मैं ने कितना है गुल का सबातकली ने ये सुन कर तबस्सुम किया
खिलना कम कम कली ने सीखा हैउस की आँखों की नीम-ख़्वाबी से
वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाएकली की आँख खुल जाए चमन बेदार हो जाए
इतना मानूस हूँ फ़ितरत से कली जब चटकीझुक के मैं ने ये कहा मुझ से कुछ इरशाद किया?
पढ़ते पढ़ते थक गए सब लोग तहरीरें मिरीलिखते लिखते शहर की दीवार काली हो गई
मोहब्बत फूल बनने पर लगी थीपलट कर फिर कली कर ली है मैं ने
मुस्कुराने का यही अंदाज़ थाजब कली चटकी तो वो याद आ गया
हमें भी तजरबा है बे-घरी का छत न होने कादरिंदे, बिजलियाँ, काली घटाएँ शोर करती हैं
हर एक काँटे पे सुर्ख़ किरनें हर इक कली में चराग़ रौशनख़याल में मुस्कुराने वाले तिरा तबस्सुम कहाँ नहीं है
तू ही बता दे कैसे काटूँरात और ऐसी काली रात
अभी आई भी नहीं कूचा-ए-दिलबर से सदाखिल गई आज मिरे दिल की कली आप ही आप
जो चमन की हयात को डस लेउस कली को बबूल कहता हूँ
चमन से कौन चला है ख़मोशियाँ ले करकली कली तड़प उट्ठी है सिसकियाँ ले कर
ये हू का वक़्त ये जंगल घना ये काली रातसुनो यहाँ कोई ख़तरा नहीं ठहर जाओ
जैसे मुँह-बंद कली रात के वीराने मेंसाँस लेना मुझे दुश्वार हुआ जाता है
कभी बे-कली कभी बे-दिली है अजीब इश्क़ की ज़िंदगीकभी ग़ुंचा पे जाँ फ़िदा कभी गुल्सिताँ से ग़रज़ नहीं
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