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शेर
ऐ बाग़बाँ नहीं तिरे गुलशन से कुछ ग़रज़
मुझ से क़सम ले छेड़ूँ अगर बर्ग-ओ-बर कहीं
बन्द्र इब्न-ए-राक़िम
शेर
कुछ शेर-ओ-शायरी से नहीं मुझ को फ़ाएदा
इल्ला हुसूल-ए-काविश-ए-बे-जा-ए-ख़ल्क़ है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
इक मौज-ए-ख़ून-ए-ख़ल्क़ थी किस की जबीं पे थी
इक तौक़-ए-फ़र्द-ए-जुर्म था किस के गले में था
मुस्तफ़ा ज़ैदी
शेर
'आदिल' सजे हुए हैं सभी ख़्वाब ख़्वान पर
और इंतिज़ार-ए-ख़ल्क़-ए-ख़ुदा कर रहे हैं हम
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
शेर
हवस की धूप में फैला है शोर-ए-ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
सुना किसी ने नहीं बस्तियों में गिर्या-ए-ख़ाक
मुईद रशीदी
शेर
इश्क़ है ऐ दिल कठिन कुछ ख़ाना-ए-ख़ाला नहीं
रख दिलेराना क़दम ता तुझ को हो इमदाद-ए-दाद
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
शेर
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
शेर
किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
इस वाक़िआ' की ख़ाक है पत्थर को इत्तिलाअ'
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
उड़ाओ ख़ाक सरसर बन के या बाद-ए-सबा बन कर