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शेर
राहत-ए-बे-ख़लिश अगर मिल भी गई तो क्या मज़ा
तल्ख़ी-ए-ग़म भी चाहिए बादा-ए-ख़ुश-गवार में
जिगर मुरादाबादी
शेर
फ़िक्र-ए-मंज़िल है न होश-ए-जादा-ए-मंज़िल मुझे
जा रहा हूँ जिस तरफ़ ले जा रहा है दिल मुझे
जिगर मुरादाबादी
शेर
तिरी कोशिश हम ऐ दिल सई-ए-ला-हासिल समझते हैं
सर-ए-मंज़िल तुझे बेगाना-ए-मंज़िल समझते हैं
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
था किसी गुम-कर्दा-ए-मंज़िल का नक़्श-ए-बे-सबात
जिस को मीर-ए-कारवाँ का नक़्श-ए-पा समझा था में