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शेर
खुला ये दिल पे कि तामीर-ए-बाम-ओ-दर है फ़रेब
बगूले क़ालिब-ए-दीवार-ओ-दर में होते हैं
अज़ीज़ हामिद मदनी
शेर
लरज़ती छत शिकस्ता बाम-ओ-दर से बात करनी है
मुझे तन्हाई में कुछ अपने घर से बात करनी है
मंसूर मुल्तानी
शेर
बाम-ओ-दर की रौशनी फिर क्यूँ बुलाती है मुझे
मैं निकल आया था घर से इक शब-ए-तारीक में
अब्दुल अहद साज़
शेर
किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा
मोहब्बत में अदा की हैं नमाज़ें बे-वुज़ू बरसों