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शेर
हम रिंद-ए-परेशाँ हैं माह-ए-रमज़ाँ है
चमकी हुई इन रोज़ों में वाइ'ज़ की दुकाँ है
वज़ीर अली सबा लखनवी
शेर
सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
इन रोज़ों हिज्र की सिल ये भारी हो गई है