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शेर
उठो 'अज़्म' इस आतिश-ए-शौक़ को सर्द होने से रोको
अगर रुक न पाए तो कोशिश ये करना धुआँ खो न जाए
अज़्म बहज़ाद
शेर
मेरी इक उम्र और इक अहद की तारीख़ रक़म है जिस पर
कैसे रोकूँ कि वो आँसू मिरी आँखों से गिरा जाता है
फ़रहत एहसास
शेर
हम रिंद-ए-परेशाँ हैं माह-ए-रमज़ाँ है
चमकी हुई इन रोज़ों में वाइ'ज़ की दुकाँ है
वज़ीर अली सबा लखनवी
शेर
सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
इन रोज़ों हिज्र की सिल ये भारी हो गई है