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शेर
इक ख़याल-ओ-ख़्वाब है ए 'शोर' ये बज़्म-ए-जहाँ
यार और जाम-ओ-सुबू सब कुछ है और फिर कुछ नहीं
जोर्ज पेश शोर
शेर
रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
मज़हब में आशिक़ों के रोज़-ए-वफ़ात भी है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
घर तेरे कुश्तगाँ की रूहें न आइयाँ हों
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
वही ज़ब्ह भी करे और वही ले सवाब उल्टा